नर्स दीदी- भगिनी, आपका शुक्रिया!

नर्सेस पब्लिक हेल्थ केयर सिस्टम की रीढ़ हैं

नर्स को भी डॉक्टर-इंजीनियर-आईएएस जितने सम्मान का हक

एक मिनट के लिए सोचकर देखिए कि ज़िंदगी से बड़ी क्या चीज़ है। जीवन देने वाले माता-पिता महान हैं, उसे बचाने वाले डॉक्टर्स वंदनीय हैं, लेकिन इसके बीच सांसों की डोर को थामकर रखने वाली नर्सेस प्रणम्य हैं, स्तुत्य हैं। आज अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस है और जब मैं आज के इस दिन को याद करता हूं तो मेरा हृदय उन सभी नर्स को “दीदी” कहकर प्रणाम करता है, जो लोगों की सेवा में, उनकी देखरेख में अपने घर और परिवार से घंटों दूर रहती हैं, बावजूद इसके आज भी उन्हें सम्मान का वो दर्जा हासिल नहीं हो पाया, जिनकी वे हकदार हैं। सही मायनों में नर्सेस पब्लिक हेल्थ केयर सिस्टम की रीढ़ हैं। रीढ़ अगर मजबूत नहीं होगी, तो ढांचा मजबूत कैसे रह सकता है। आम तौर पर नर्स को सिस्टर भी कहते हैं यानी बहन, बाजी, आपा या भगिनी…। इस मायने में हम सबको आज जरूर कहना चाहिए- नर्स दीदी- भगिनी, आपका शुक्रिया…

खैर, आप सोच रहे होंगे कि आख़िर मैंने नर्स दीदी शब्द का प्रयोग क्यों किया? दरअसल इसके पीछे एक कहानी है। असम के गुवाहाटी में जहां मेरा बचपन बीता, मेरे घर के पास एक नर्स थीं, जिन्हें सभी नर्स बाइदेउ कहते थे। ‘बाइदेउ’ का अर्थ होता है दीदी। उनका परिवार हमारे मोहल्ले में ही था। वो सीनियर नर्स थीं और गुवाहाटी मेडिकल काॅलेज में हेड मेट्रॉन थीं। मोहल्ले में हम सब उन्हें एक डॉक्टर की तरह ही सम्मान देते थे। वास्तव में वो मेडिसीन की एनसाइक्लोपीडिया की तरह थीं। हमने देखा है कि उन दिनों किसी को भी कोई भी तकलीफ हो, वो सीधे नर्स दीदी के पास पहुंच जाया करते। मेरी मां को भी मैंने कई बार उनसे बीमारी के दौरान सलाह लेते हुए देखा है। मैंने देखा है कि नर्स दीदी अपने घर आने वाले किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ नहीं लौटाती। वो जितना मदद कर सकती, जरूर करती और सबसे बड़ी बात कि उनके चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती। उनके चेहरे पर हमेशा एक ममता का भाव होता। वही स्नेह जो एक बहन का अपने भाई के प्रति और एक मां का अपने बेटे के प्रति होता है। कभी चोट लग जाती तो हम उनके पास जाते। वो हमें डांटती कि अपना ध्यान नहीं रखते और फिर प्यार से मरहम-पट्‌टी करती। उनकी सेवा मेरे मन में इस कदर अंकित है, कि मैंने उनके बाद जब-जब किसी नर्स को देखा, मुझे “नर्स दीदी” का ख्याल आया।

कभी-कभी मैं सोचता हूं उस ब्रिटिश नर्स फ्लोरेंस नाइटेंगल के बारे में, जिनकी याद में पूरी दुनिया ये दिन मनाती है। उन्होंने कहा था-

“मैं अपनी सफलता का श्रेय इस बात को देती हूं कि मैं ये मानती हूं मैंने कभी कोई योगदान नहीं दिया।”

उनका ये कथन इस मायने में बेहद अहम है कि आप यदि कुछ करना चाहते हैं, तो श्रेय की लड़ाई से दूर रहिए। क्या संघर्ष रहा होगा उनका, क्या जज्बा रहा होगा? एक बड़े परिवार से ताल्लुक रखने वाली ये महिला ऐश्वर्यपूर्ण जीवन भी जी सकती थीं, लेकिन उन्होंने मानवता के लिए संघर्ष को चुना। एक महिला जिसने नर्स के रूप में सेवा करते हुए जीवन समर्पित कर दिया। 12 मई 1820 को उनका जन्म हुआ। परिवारवालों के विरोध के बावजूद 1845 में उन्होंने अभावग्रस्त लोगों की मदद का रास्ता चुना। दुनिया ने उन्हें तब पहचाना, जब 1854 में क्रिमिया का युद्ध चल रहा था। 38 स्त्रियों का एक दल तुर्की भेजा गया, जिनमें वे भी थीं। वो रात-रात भर सिर्फ एक लालटेन के सहारे घायलों की सेवा करतीं, इसी कारण उन्हें “द लेडी विद द लैंप” का नाम मिला। इसके बाद उन्हीं की प्रेरणा से नर्सिंग के क्षेत्र में महिलाएं आगे आईं। उनकी लिखी किताब “नोट्स ऑन नर्सिंग” आज भी मील का पत्थर मानी जाती है। महारानी विक्टोरिया से 1869 में इस महान महिला ने रॉयल रेड क्रॉस हासिल किया। 90 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया, लेकिन अपने पीछे वे एक ऐसा रास्ता छोड़ गईं, जिस पर चलकर आज दुनियाभर की नर्सेस सेवा कर रही हैं। आखिरकार दुनिया ने उनके त्याग को स्वीकार किया और अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनरहावर ने 1953 में पहली बार नर्स वीक मनाने का ऐलान किया। अमेरिका में 6 मई से नर्सेस वीक मनाया जाता है, जो पूरे सप्ताह चलता है। कई आयोजन होते हैं। इस दौरान कई तरह की सुविधाओं की घोषणा की जाती है। मार्केट में भी उन्हें कई तरह की छूट मिलती है। रेस्टोरेंट्स में कांप्लिमेंटरीज़ दी जाती हैं। ये सब उनके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए किया जाता है। इस शुरुआत के बाद अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस 1974 से मनाया जा रहा है।

ऐसा नहीं है कि हमें पहले नर्सिंग के बारे में ज्ञान नहीं था। हमारे वेदों में तक इसका जिक्र है। आचार्य चरक ने करीब 1000 ईपू में लिखा है कि रोगी की देखभाल के लिए शुश्रुता यानी नर्स थीं। उनका बहुत आदर था। ऐसा लिखा गया है कि शुश्रुता को शुद्ध आचरण, पवित्र, चतुर, कुशल, दयावान, रोगी की सेवा करने में दक्ष, धैर्यवान होना चाहिए। इसके बाद भी विभिन्न कालखंडों में अलग-अलग स्थानों पर उपचारिकाओं का दृश्य मिलता है। मौर्य वंश में सम्राट अशोक ( 268-232 ईपू) के समय यात्रियों के लिए अस्पतालों का वर्णन मिलता है। ये समय बुद्धकाल का भी था और कहा जाता है कि बौद्ध संतों ने भी मनुष्य और पशुओं के लिए उपचार की व्यवस्था की थी। प्राचीन शिलालेखों में इसका वर्णन है। जाहिर सी बात है, यदि अस्पताल है, तो मरीजों की देखरेख करने वाले भी होंगे। हालांकि ये कहना मुश्किल है कि ये महिलाएं ही थीं या पुरुष। इन सबका अर्थ है कि नर्स की महत्ता को हमारे देश में सैकड़ों साल पहले स्वीकार कर लिया गया है, लेकिन हम उनके अनुगामी नहीं बन सके। हमें उन मूल्यों को फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है।

आज विकसित, विकासशील और अल्पविकसित तीनों तरह के देशों में नर्स की बहुत कमी है और ये कमी शायद इसलिए भी है, कि शायद हमने उनका मर्म कभी समझा ही नहीं। काश नर्स के पेशे को हम उतना सम्मान दे पाते, जितनी की वे हकदार हैं। यकीनन, आज दुनिया जिस दौर से गुज़र रही है, उसमें नर्सिंग स्टाफ न होता, तो न डॉक्टर कुछ कर पाते और न ही दवाइयां। आप इसे कुछ इस तरह मानकर चलिए कि अगर डॉक्टर सेनापति हैं तो नर्स उनकी सेना है। बिना सेना के क्या कोई सेनापति रणनीति बना सकता है? कोई युद्ध जीत सकता है?
एक बात और है। आमतौर पर जब हम नर्स शब्द का प्रयोग करते हैं, तो हमारे दिमाग में महिला की छवि उभरती है, जबकि अब इसमें कुछ पुरुष भी शामिल हैं। इसलिए जब हम नर्स कहें तो इसे एक पेशे के तौर पर सोचा जाना चाहिए, न कि लैंगिक आधार पर।

मैंने अखबार में एक खबर देखी- 54 कोविड पॉजिटिव नवजातों को छाती से लगाकर पोसी नाजुक ज़िंदगी। आप सोचिए, कि ये वो दौर है, जहां अपने भी पॉजिटिव लोगों से दूर हो जा रहे हैं, लेकिन ये नर्स कोविड वार्ड के अंदर दिन-रात काम कर रही हैं। मांओं की तरह देखभाल कर रही हैं, तो इन्हें नमन न करें, तो क्या करें? शहरों और गांवों में जब सामुदायिक कार्यक्रम चलते हैं, तो ये नर्सेस ही आगे होती हैं। शहर तो फिर भी ठीक है, लेकिन गांवों में कई-कई किलोमीटर तक पैदल चलना होता है। हमारे छत्तीसगढ़ में बस्तर जैसे सुदूर क्षेत्रों में आज भी नदी-पहाड़ लांघकर वे गांवों तक पहुंच रही हैं। वे खुद बीमार होती हैं, तब भी अपना काम नहीं छोड़तीं। ऐसे मैंने बहुत से उदाहरण देखे हैं। इन नर्सों को देखकर मुझे महात्मा गांधी का कथन याद आता है-
“यदि आप आपने आपको जानना चाहते हो, खुद को खोजना चाहते हो, तो आप दूसरों की सेवा में खुद को भूल जाओ।” अंग्रेजी की वो कहावत बिल्कुल सच है- केयर फॉर वन, दैट्स लव..केयर फॉर हंड्रेड्स दैट्स नर्सिंग…। मदर टेेरेसा ने भी कुछ ऐसा ही कहा था कि आप कितना काम करते हैं ये उतना अहम नहीं है, अहम ये है कि किसी काम को आप कितने प्यार से करते हैं। और नर्सिंग एक ऐसा पेशा है, जिसमें से अगर प्रेम को निकाल दो, तो शायद इसकी ताकत आधी दिखती है। वास्तव में एक नर्स को समन्वयक, संदेशक, शिक्षक, काउंसलर, मैनेजर, लीडर, टीम प्लेयर, मोटिवेटर, डेलिगेटर, क्रिटिकल थिंकर, इनोवेटर, रिसर्चर और कई बार तो वकील की भी भूमिका निभाई पड़ती है। अब आप सोचिए कि किसी और प्रोफेशन में एक व्यक्ति के भीतर इतनी खूबियां भला कौन ढूंढता है? ये नर्सेस इन्हीं मूल्यों को लेकर काम कर रही हैं। इस सेवा का क्या कोई मूल्य चुकाया जा सकता है?

मैं खुशनसीब हूं कि ईश्वर ने मुझे इस योग्य बनाया कि मैं “नर्स दीदी” यानी इस पेशे से जुड़े हुए लोगों के लिए कुछ कर सका। प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते फील्ड पोस्टिंग में हमेशा पब्लिक हेल्थ सिस्टम के लिए कार्य करने का अवसर मिला। इसके साथ ही नर्स, दाई और पैरामेडिकल स्टाफ को नज़दीक से जानने-समझने का मौका मिला। सभी पोस्टिंग के दौरान मुझे नर्स दीदी से लेकर तमाम अनुभव काम आए, विशेषकर बिलासपुर में। मैं जब बिलासपुर का कलेक्टर था, तो मुझे सिम्स में उनकी समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिला। बिलासपुर कमिश्नर रहने के दौरान भी मेरे पास उनकी समस्याएं आती रहीं। चूंकि मेरे हृदय पर नर्स दीदी की छाप अंकित थी, मैं प्राथमिकता से वो सारी फाइलें निपटाईं, जो नर्सों की समस्याओं से जुड़ी थीं। वास्तव में हम-आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे किस दबाव में काम करती हैं। 12-12 घंटे अपने घर से दूर रहना, मरीजों के बीच एक-एक मरीजों की जरूरतों का ख्याल रखना और इस बीच अपने परिवार वालों की भी चिंता करना…बहुत आसान नहीं है।

कोविड जैसी महामारी के परिप्रेक्ष्य में पब्लिक हेल्थ सिस्टम में व्यापक सुधार की आवश्यकता है और इसमें बड़ी संख्या में प्रशिक्षित नर्स तैयार करना वर्तमान और भविष्य की जरूरत है। इस विकट समय ने हमें बताया है कि हमें नर्सिंग के पेशे के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है। डब्ल्यूएचओ की मानें तो आज पूरी दुनिया में सिर्फ 2.8 करोड़ नर्सिंग स्टाफ है। आप सोचिए करीब 7.7 अरब विश्व की जनसंख्या है और इतनी बड़ी आबादी के लिए नर्स सिर्फ 2.8 करोड़। रिपोर्ट इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि अगले दस सालों में हर 6 में से एक नर्स रिटायर हो जाएगी। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक अगर आने वाले समय में स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर रखनी है तो हर हाल में 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष नर्स की संख्या बढ़ानी होगी। और इसके लिए जरूरी है कि हम नर्स के पेशे को सम्मान के साथ-साथ कुछ मौलिक सुविधाएं भी उपलब्ध करवाएं। आप देखिए कि नर्सेस वीक में अमेरिका जैसे देशों के रेस्टोरेंट , मार्केट में अपने यहां नर्सेस को कई छूट देते हैं। भारत में भी अभी नर्सिंग को लेकर उतनी जागरूकता नहीं आई है, जितनी आनी चाहिए। कोविड के इस दौर ने हमें मजबूर किया है कि हम इसके बारे में सोचें। हमें ज्यादा से ज्यादा मेडिकल कॉलेज तो चाहिए लेकिन नर्सिंग कॉलेज की मांग बहुत कम होती है। ड्यूटी का समय तक निश्चित नहीं है, और इसका कारण यही है कि नर्स की संख्या कम है। इस बात की भी जरूरत है कि इस क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा विशेषीकरण हो। आईसीयू, नवजात शिशुओं की देखरेख, सीनियर सिटीजन की देखरेख, क्रिटिकल केयर इत्यादि में दक्षता के लिए अलग तरह के ट्रेनिंग प्रोग्राम होने चाहिए और ये अधिक से अधिक होने चाहिए। इसके लिए ज्यादा से ज्यादा दक्ष संस्थानों की जरूरत है, ताकि आज जैसे विशेष परिस्थितियों से निपटने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जा सके।

भविष्य में ऐसा पाठ्यक्रम तैयार कर सकते हैं, जिसमें 10वीं के बाद नर्सिंग को एक विषय विशेष के रूप में चुनने का अवसर मिले, लेकिन ये तभी संभव है जब हम नर्स को डॉक्टर्स, इंजीनियर्स और प्रशासनिक अधिकारियों के समान मानकर उनके सम्मान, वेतन और सुविधाओं में वृद्धि कर सकें। अभी के दौर को देखते हुए ये बेहद अहम है कि फ्रंटलाइन में उनकी भूमिका को ज्यादा से ज्यादा सराहा जाए, उनका बहुत अधिक सम्मान किया जाए। मैं बार-बार सम्मान पर ज़ोर दे रहा हूं तो इसका उचित कारण है। वे पीपीई कीट पहनकर 12-12 घंटे सेवा कर रही हैं। हम-आप शायद इस कीट को एक घंटे भी मुश्किल से पहन पाएं। उन्हें पेशेगत सुरक्षा की बेहद आवश्यकता है। इसके अलावा मानसिक और आर्थिक रूप से जितनी मदद हो सके, हमें उनकी करनी चाहिए। कार्यक्षेत्र में उन्हें आवश्यक संसाधन और सुरक्षा प्रदान करना जरूरी है। राउंड द क्लॉक काम करने के कारण कई स्थानों पर नर्स अवसाद में भी जा रही हैं। हमें उन्हें इन अवसादों में जाने से रोकना होगा। जिन नर्सेस की इस महामारी के दौरान जान गई है, हम उन्हें शहीद से कम नहीं मान सकते। मेरी ईश्वर से कामना है कि वे उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दे और उनके परिवार को संबल प्रदान करे, लेकिन समाज को इन परिवारों के बारे में सोचना होगा। वे आज सैनिक की भांति लड़ रही हैं। क्या हम इतना भी नहीं कर सकतेे कि अगली बार जब हम किसी नर्स को देखें तो उनके सम्मान में खड़े हो जाएं, नर्स या मेडिकल स्टाफ को देखें तो कम से कम उनके लिए हम ताली बजाकर उनका सम्मान कर दें। जो कुछ संभव है, हम उनके लिए जरूर करें। हम उन्हें ये महसूस कराएं कि हमें उन पर गर्व है। वो खुद ये महसूस करे कि नर्सिंग प्रोफेशन आज दुनिया की नज़र में सबसे ज्यादा सम्मानजनक है। यदि हमने ऐसा कर दिया तो यकीन मानिए कि वो दिन दूर नहीं जब विकसित देशों की तरह नर्सेस की जॉब टॉप टेन में सबसे ज्यादा चुने वाले जॉब में से एक होगी। इसके लिए समाज को माइंड सेट बदलने की जरूरत है। वो नर्सिंग के प्रति अपने नजरिए में बदलाव लाए। उन्हें प्राथमिकता में लाए।

इस बात को समझिए कि जीवन का कोई दूसरा विकल्प नहीं है और जो भी व्यक्ति हमारे जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन को संकट में डालता है, सम्मान के लिए उसकी प्राथमिकता पहले ही तय हो जानी चाहिए और ये सम्मान केवल एक औपचारिकता भर बनकर न रहे। ये हृदय से उठने वाले भाव होने चाहिए। मेरा हृदय देश की तमाम “नर्स दीदी” को इस दौर में संघर्ष के लिए कोटि-कोटि साधुवाद दे रहा है।

सोनमणि बोरा
वरिष्ठ आईएएस, छत्तीसगढ़
(सचिव, संसदीय कार्य विभाग)